पिछड़े वर्ग की पड़ताल
भारतीय समाज आज भी छोटे-छोटे समुदायों में बंटा हुआ है। वर्तमान परिस्थितियों में यह लगातार जातियों के दीर्घ समुच्चयों से छिटककर अनेक उपजातियों के लघु समुच्चयों में बंटता जा रहा है। किसी भी समाज का अध्ययन निश्चित रूप से उनके उत्थान के उद्देश्य से ही किया जाता है। प्राचीन काल से ही भारत में जातिगत व्यवस्था को लेकर अनेक प्रश्न खड़े होते रहे है या किए जाते रहे हैं। इतिहासकारों एवं विद्वानों में वर्ण व्यवस्था को लेकर प्राचीन काल से ही विवाद एवं संघर्ष की स्थिति बनी रही, यहां तक कि वर्णों के वर्गीकरण की प्रक्रिया भी समानान्तर रूप से चलती रही। कहा जाता है कि इतिहास हमारे दिमाग में होता है जो वर्तमान परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप भविष्य के लिए लिखा जाता है। भारत में स्वतंत्रता के पूर्व से ही समाज के पिछड़े वर्ग का वर्णीकरण प्रारंभ हुआ। इसका परिणाम वृहत्तर रूप में आधुनिक भारत में देखने मिल रहा है। इसी पिछड़ा वर्ग में बढ़ती वर्णोत्तरीकरण की प्रक्रिया और पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति से लेकर वर्तमान स्थिति को रेखांकित करती है संजीव खुदशाह की पुस्तक ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग''। जैसा कि पुस्तक के उपशीर्षक में स्पष्टï रूप से कहा गया है (पूर्वग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं) उसी के अनुरूप यह पुस्तक चार अध्याय में पिछड़े वर्ग की मीमांसा करती है।
लेखक ने अपनी प्रस्तावना में स्पष्टï रूप से स्वीकार किया है कि यह एक शोध प्रबंध है। शोध प्रकल्प के रूप में लेखक ने काफी संदर्भ सामग्री एकत्रित की है। इन संदर्भों में वेग, स्मृति ग्रंथों से लेकर आधुनिक इतिहासकारों एवं विचारकों के उद्धहरण व मान्यताएं शामिल हैं, मगर मुख्य रूप से यह पुस्तक डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा प्रतिपादित मान्यताओं को आधार बनाकर लिखी गई कही जा सकती है। मुख्य रूप से चार अध्याय में पिछड़े वर्ग की स्थिति की पड़ताल करती इस पुस्तक का प्रथम अध्याय पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति और इस वर्ग के वर्गीकरण पर है। प्रथम अध्याय में मानव की उत्पत्ति पर विभिन्न धार्मिक व वैज्ञानिक मान्यताओं की चर्चा है इसमें हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था के प्रारंभिक सोपान का उल्लेख है। डॉ. अम्बेडकर द्वारा प्रतिस्थापित सिर्फ तीन वर्ण को मान्यता देते हुए लेखक संपूर्ण पिछड़े वर्ग को चौथे वर्ण में शामिल करता है। इस मान्यता को आगे बढ़ाते हुए प्रथम अध्याय में चौथे वर्ण में कार्य के आधार पर उत्पादक व अनुत्पादक जातियों के रूप में चौथे वर्ण का वर्गीकरण किया गया है एवं उनके उत्पादक मूल्य के आधार पर ही वर्ण व्यवस्था में उन्हें पृश्य या अस्पृश्य माना गया है।
प्रारंभिक अवधारणा के पश्चात पिछड़े वर्ग में शामिल विभिन्न पिछड़ी जातियों के गोत्र को लेकर मान्यताओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। मनुस्मृति द्वारा निर्धारित विभिन्न वर्णों के अंतरसंबंधों से उत्पन्न संकर जातियों की विस्तृत सारणी दी गई है। रक्त मिश्रण के कारण एवं इसके उत्पादों के वर्ण व वर्ग निर्धारण की पौराणिक मान्यताओं का विस्तार से अध्ययन कर उसकी पड़ताल की गई है जो काफी रोचक व जानकारीपूर्ण है। इसके साथ ही वर्तमान में शक्तिशाली और संपन्न जातियों कायस्थ, मराठा एवं कुछ अन्य पिछड़ी जातियों द्वारा स्वयं को गोत्र के आधार पर उच्च वर्ण में शामिल किए जाने की अवधारणा पर प्रश्न खड़े किए हैं। इस अध्याय में संदर्भों का हवाला देते हुए लोक मान्य देवी देवताओं को सवर्णों द्वारा स्वीकार किए जाने के पीछे निहित स्वार्थ व समाज पर उच्च वर्ण का दबदबा बनाए रखने की साजिश पर प्रकाश डाला गया है। उपलब्ध गजट एवं अभिलेखों के अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अंग्रेजों द्वारा अपनी सुविधा हेतु पहली बार जातीय आधार पर भारत की जनगणना करवाई गई। दरअसल 1857 के संग्राम के पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी के स्थान पर भारत जब सीधे ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन हुआ तो प्रशासनिक व्यवस्था अपने अनुरूप करने के उद्देश्य से अंग्रेजों ने भारतीय समाज को जातीय आधार पर वर्गीकृत कर दस्तावेजीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ की। इस दौर में शासक की निगाह में उच्च स्थान प्राप्त करने के उद्देश्य से सवर्णों के साथ-साथ पिछड़े वर्गों में भी जातीय अस्मिता और प्रतिष्ठा के गौरव गान की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। लेखक ने अपने शोध में यह बताया है कि पौराणिक काल से लगातार पिछड़े वर्ग को दलित पतित रखने की कोशिशों को अंग्रेजों ने विराम लगाया और मानव को मानव समझते हुए भारतीय समाज को समतामूलक बनाने की दिशा में सार्थक पहल प्रारंभ की। हालांकि इस पर कुछ विद्वानों की राय यह भी है कि अंग्रेजों द्वारा धार्मिक बंटवारे के साथ-साथ समाज को जातीय आधार पर बांटने का यह कुत्सित प्रयास था। इस संदर्भ में लेखक ने डॉ. अम्बेडकर व महात्मा गांधी के पूना पैक्ट का भी जिक्र किया है। पूना पैक्ट आज भी कई दलित, पिछड़े वर्ग एवं कई सामान्य वर्ग के विचारकों की निगाह में पिछड़ों की हार माना जाता है जबकि वृहत्तर रूप में पूना पैक्ट हिन्दोस्तान को जातीय आधार पर बंटवारे से बचाने की दिशा में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम करार दिया जाता है। आधुनिक संदर्भ में यह दुखद है कि एक बाद फिर जातीय अस्मिता को वर्तमान सत्ताधारियों द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है। जिस पूना पैक्ट के तहत पिछड़ों या दलितों के लिए मुसलमानों की तरह पृथक निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था पर विराम लगाया गया था वह आज नए रूप में हमारे सामने है।
संजीव खुदशाह अपनी पुस्तक के इस अध्याय में आरक्षण व्यवस्था की पड़ताल करते हुए विभिन्न जातियों की अधिकृत सूची के साथ ही इस सूची में शामिल होने आतुर जातियों की चर्चा भी करते हैं। काका कालेलकर आयोग से लेकर मंडल आयोग की सिफारिशों पर तथ्यों और संभावनाओं की चर्चा की गई है। यहां लेखक 1931 में अंग्रेजों द्वारा जातीय आधार पर करवाई गई जनगणना के आंकड़े नहीं उद्धत करते जो पुस्तक को और मजबूती प्रदान करते। जबकि प्रथम अध्याय में अंग्रेजों द्वारा 1872 में करवाए गए जातीय दस्तावेजों का उल्लेख किया गया है। दरअसल यह बात काबिले गौर है कि वे आयोग स्वतंत्र भारत में गठित किए गए जो कि आधुनिक भारत के निर्माण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में समाज का लगभग हर पिछड़ा तबका अपनी उन्नति और प्रतिष्ठा के लिए संघर्षरत है। यह बात भी उल्लेखनीय है कि अगड़ी जाति के कई संवेदनशील लोग भी इस आंदोलन में पिछड़े वर्ग के साथ हैं। लेखक की किताब भी उन्हीं लोगों को समर्पित है जो भारतीय समाज में मनुष्यों को समान दर्जा दिलाए जाने के लिए संघर्षरत हैं। यह समर्पण उनकी मंशा व मानसिकता को पाठकों के सामने उद्घाटित करता है।
भारतीय समाज के पिछड़े वर्ग में राजनैतिक महात्वाकांक्षाओं का आगाज गुलामी के दौर में ही दक्षिण में हो चुका था मगर उत्तर भारत में लंबे समय तक कांग्रेस राजनैतिक क्षेत्र में पिछड़े वर्ग की हिमायती के रूप में अपना स्थान बनाए रखी। मंडल आयोग के गठन एवं उसकी सिफारिशों के पश्चात कांशीराम ने उन सिफारिशों के क्रियान्वयन हेतु पिछड़े वर्ग को संगठित कर नए समीकरण की शुरूआत की। इस पुस्तक में इस जागृति और आंदोलन पर भी चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि कांशीराम के उदय से भारतीय राजनीति में न सिर्फ हिन्दू बल्कि मुसलमानों के भी पिछड़े वर्ग की प्रतिष्ठïा पुन:स्थापित होने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। दरअसल आदिकाल से उत्तर भारत में सामाजिक आंदोलन कभी भी व्यापक रूप से परिवर्तन कर पाने में सक्षम नहीं रहे। उत्तर भारत में राजनैतिक सत्ता ही जातीय प्रतिष्ठïा या सामाजिक व्यस्था में जातीय समीकरण के उत्थान व पतन की कारक रहीं। इस बात पर लेखक ने कुछ पिछड़ी जनजातियों की शासक व विजयी जातियों एवं समुदाय के वीर पुरुषों का जिक्र किया है।
अंतिम अध्याय में लेखक पिछड़े वर्ग में शामिल जातियों की हड़ताल करते हुए एक बार फिर कार्य के आधार पर जातियों की व्याख्या एवं वर्गीकरण करते हुए मंडल आयोग की सिफारिशों के अनुसार अधिकृत रूप से पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों का विस्तृत विवरण देते हैं। इस सूची में सभी धर्मों एवं समुदाय की पिछड़ी जातियों का विवरण है। इसी अध्याय में वे पिछड़े वर्ग की समस्याओं के कारणों एवं उसके समाधान की संक्षिप्त चर्चा करते हैं। आरक्षण के पक्ष विपक्ष में प्रश्नोत्तरी के माध्यम से चर्चा की गई है। आरक्षण के समर्थन में उनके तर्क एवं व्याख्या समीक्षा में शामिल नहीं किए जा सकते क्योंकि ये उनके अपने विचार हैं जो किसी शोध के नहीं अपितु नैतिक व समतामूलक समाज की पक्षधरता को रेखांकित करते हैं। लेखक के इन विचारों से पाठक अपनी समझ या मानसिकता के अनुसार सहमत या असहमत होने का पूरा अधिकार रखता है।
संजीव खुदशाह छत्तीसगढ़ के हैं। इस बात का उल्लेख दो कारणों से आवश्यक सा लगता है। पहला इसलिए कि पूरी पुस्तक की भाषा बहुत सौम्य और विनय प्रधान है। स्वर कहीं भी आक्रामक या आरोपात्मक नहीं होते जबकि हाल के वर्षों में इस तरह का अधिकतर लेखन आक्रामक ही रहा है। यह शायद इसलिए भी है कि छत्तीसगढ़ में प्राचीनकाल से ही प्रचलित सामाजिक व्यवस्था उस आक्रामक व वीभत्स रूप से नहीं रही, मगर इस जनजातीय बाहुल्य क्षेत्र में उत्तरीय औपनिवेशकों के आगमन के साथ वर्ण व्यवस्था की जड़ें फैलती गई। दूसरा महत्वपूर्ण कारण इस क्षेत्र से होने के बावजूद संजीव खुदशाह की पिछड़े वर्ग की इस वृहत्तर शोधपरक पुस्तक में स्थानीय पिछड़े वर्ग की लगभग अनदेखी निराश करती है। छत्तीसगढ़ में भी पिछड़े वर्ग के पुनरुत्थान के लिए लगातार संघर्ष हुए हैं। हालांकि उनकी पुस्तक प्रांतीय या क्षेत्रीय सीमाओं में बांधकर नहीं देखी जा सकती मगर विभिन्न समाज सुधारकों के संक्षिप्त परिचय में छत्तीसगढ़ के ख्यातनाम और सतनाम के प्रवर्तक गुरु घासीदास की अनुपस्थिति कुछ निराश करती है।
आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग पुस्तक में लेखक ने बहुत परिश्रम व लगन से शोध कार्य किया है। यह पुस्तक संजीव खुदशाह की पूर्व कृति ''सफाई कामगार समुदाय'' की अगली कड़ी के रूप में सामने आई है। ''सफाई कामगार समुदाय'' काफी चर्चित पुस्तक रही है। यह पुस्तक उसी श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए पिछड़े वर्ग की वर्तमान स्थिति को उजागर करती है। लेखक ने सभी वर्ण व वर्ग की व्याख्या में पूरी तटस्थता बरती है। उनकी खोजपूर्ण पुस्तक में हालांकि सभी तथ्यों एवं उद्धहरण को शामिल किया जा पाना संभव नहीं हो सकता फिर भी यह एक गंभीर विमर्श की मगर पठनीय पुस्तक है। प्रथम कृति ''सफाई कामगार समुदाय'' के पश्चात लेखक संजीव खुदशाह की ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग'' लंबे अंतराल के पश्चात आई है मगर इस पुस्तक के लिए की गई मेहनत के परिणामस्वरूप शोधार्थियों के साथ ही आम पाठकों के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है।
भारतीय समाज आज भी छोटे-छोटे समुदायों में बंटा हुआ है। वर्तमान परिस्थितियों में यह लगातार जातियों के दीर्घ समुच्चयों से छिटककर अनेक उपजातियों के लघु समुच्चयों में बंटता जा रहा है। किसी भी समाज का अध्ययन निश्चित रूप से उनके उत्थान के उद्देश्य से ही किया जाता है। प्राचीन काल से ही भारत में जातिगत व्यवस्था को लेकर अनेक प्रश्न खड़े होते रहे है या किए जाते रहे हैं। इतिहासकारों एवं विद्वानों में वर्ण व्यवस्था को लेकर प्राचीन काल से ही विवाद एवं संघर्ष की स्थिति बनी रही, यहां तक कि वर्णों के वर्गीकरण की प्रक्रिया भी समानान्तर रूप से चलती रही। कहा जाता है कि इतिहास हमारे दिमाग में होता है जो वर्तमान परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप भविष्य के लिए लिखा जाता है। भारत में स्वतंत्रता के पूर्व से ही समाज के पिछड़े वर्ग का वर्णीकरण प्रारंभ हुआ। इसका परिणाम वृहत्तर रूप में आधुनिक भारत में देखने मिल रहा है। इसी पिछड़ा वर्ग में बढ़ती वर्णोत्तरीकरण की प्रक्रिया और पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति से लेकर वर्तमान स्थिति को रेखांकित करती है संजीव खुदशाह की पुस्तक ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग''। जैसा कि पुस्तक के उपशीर्षक में स्पष्टï रूप से कहा गया है (पूर्वग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं) उसी के अनुरूप यह पुस्तक चार अध्याय में पिछड़े वर्ग की मीमांसा करती है।
लेखक ने अपनी प्रस्तावना में स्पष्टï रूप से स्वीकार किया है कि यह एक शोध प्रबंध है। शोध प्रकल्प के रूप में लेखक ने काफी संदर्भ सामग्री एकत्रित की है। इन संदर्भों में वेग, स्मृति ग्रंथों से लेकर आधुनिक इतिहासकारों एवं विचारकों के उद्धहरण व मान्यताएं शामिल हैं, मगर मुख्य रूप से यह पुस्तक डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा प्रतिपादित मान्यताओं को आधार बनाकर लिखी गई कही जा सकती है। मुख्य रूप से चार अध्याय में पिछड़े वर्ग की स्थिति की पड़ताल करती इस पुस्तक का प्रथम अध्याय पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति और इस वर्ग के वर्गीकरण पर है। प्रथम अध्याय में मानव की उत्पत्ति पर विभिन्न धार्मिक व वैज्ञानिक मान्यताओं की चर्चा है इसमें हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था के प्रारंभिक सोपान का उल्लेख है। डॉ. अम्बेडकर द्वारा प्रतिस्थापित सिर्फ तीन वर्ण को मान्यता देते हुए लेखक संपूर्ण पिछड़े वर्ग को चौथे वर्ण में शामिल करता है। इस मान्यता को आगे बढ़ाते हुए प्रथम अध्याय में चौथे वर्ण में कार्य के आधार पर उत्पादक व अनुत्पादक जातियों के रूप में चौथे वर्ण का वर्गीकरण किया गया है एवं उनके उत्पादक मूल्य के आधार पर ही वर्ण व्यवस्था में उन्हें पृश्य या अस्पृश्य माना गया है।
प्रारंभिक अवधारणा के पश्चात पिछड़े वर्ग में शामिल विभिन्न पिछड़ी जातियों के गोत्र को लेकर मान्यताओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। मनुस्मृति द्वारा निर्धारित विभिन्न वर्णों के अंतरसंबंधों से उत्पन्न संकर जातियों की विस्तृत सारणी दी गई है। रक्त मिश्रण के कारण एवं इसके उत्पादों के वर्ण व वर्ग निर्धारण की पौराणिक मान्यताओं का विस्तार से अध्ययन कर उसकी पड़ताल की गई है जो काफी रोचक व जानकारीपूर्ण है। इसके साथ ही वर्तमान में शक्तिशाली और संपन्न जातियों कायस्थ, मराठा एवं कुछ अन्य पिछड़ी जातियों द्वारा स्वयं को गोत्र के आधार पर उच्च वर्ण में शामिल किए जाने की अवधारणा पर प्रश्न खड़े किए हैं। इस अध्याय में संदर्भों का हवाला देते हुए लोक मान्य देवी देवताओं को सवर्णों द्वारा स्वीकार किए जाने के पीछे निहित स्वार्थ व समाज पर उच्च वर्ण का दबदबा बनाए रखने की साजिश पर प्रकाश डाला गया है। उपलब्ध गजट एवं अभिलेखों के अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अंग्रेजों द्वारा अपनी सुविधा हेतु पहली बार जातीय आधार पर भारत की जनगणना करवाई गई। दरअसल 1857 के संग्राम के पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी के स्थान पर भारत जब सीधे ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन हुआ तो प्रशासनिक व्यवस्था अपने अनुरूप करने के उद्देश्य से अंग्रेजों ने भारतीय समाज को जातीय आधार पर वर्गीकृत कर दस्तावेजीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ की। इस दौर में शासक की निगाह में उच्च स्थान प्राप्त करने के उद्देश्य से सवर्णों के साथ-साथ पिछड़े वर्गों में भी जातीय अस्मिता और प्रतिष्ठा के गौरव गान की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। लेखक ने अपने शोध में यह बताया है कि पौराणिक काल से लगातार पिछड़े वर्ग को दलित पतित रखने की कोशिशों को अंग्रेजों ने विराम लगाया और मानव को मानव समझते हुए भारतीय समाज को समतामूलक बनाने की दिशा में सार्थक पहल प्रारंभ की। हालांकि इस पर कुछ विद्वानों की राय यह भी है कि अंग्रेजों द्वारा धार्मिक बंटवारे के साथ-साथ समाज को जातीय आधार पर बांटने का यह कुत्सित प्रयास था। इस संदर्भ में लेखक ने डॉ. अम्बेडकर व महात्मा गांधी के पूना पैक्ट का भी जिक्र किया है। पूना पैक्ट आज भी कई दलित, पिछड़े वर्ग एवं कई सामान्य वर्ग के विचारकों की निगाह में पिछड़ों की हार माना जाता है जबकि वृहत्तर रूप में पूना पैक्ट हिन्दोस्तान को जातीय आधार पर बंटवारे से बचाने की दिशा में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम करार दिया जाता है। आधुनिक संदर्भ में यह दुखद है कि एक बाद फिर जातीय अस्मिता को वर्तमान सत्ताधारियों द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है। जिस पूना पैक्ट के तहत पिछड़ों या दलितों के लिए मुसलमानों की तरह पृथक निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था पर विराम लगाया गया था वह आज नए रूप में हमारे सामने है।
संजीव खुदशाह अपनी पुस्तक के इस अध्याय में आरक्षण व्यवस्था की पड़ताल करते हुए विभिन्न जातियों की अधिकृत सूची के साथ ही इस सूची में शामिल होने आतुर जातियों की चर्चा भी करते हैं। काका कालेलकर आयोग से लेकर मंडल आयोग की सिफारिशों पर तथ्यों और संभावनाओं की चर्चा की गई है। यहां लेखक 1931 में अंग्रेजों द्वारा जातीय आधार पर करवाई गई जनगणना के आंकड़े नहीं उद्धत करते जो पुस्तक को और मजबूती प्रदान करते। जबकि प्रथम अध्याय में अंग्रेजों द्वारा 1872 में करवाए गए जातीय दस्तावेजों का उल्लेख किया गया है। दरअसल यह बात काबिले गौर है कि वे आयोग स्वतंत्र भारत में गठित किए गए जो कि आधुनिक भारत के निर्माण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में समाज का लगभग हर पिछड़ा तबका अपनी उन्नति और प्रतिष्ठा के लिए संघर्षरत है। यह बात भी उल्लेखनीय है कि अगड़ी जाति के कई संवेदनशील लोग भी इस आंदोलन में पिछड़े वर्ग के साथ हैं। लेखक की किताब भी उन्हीं लोगों को समर्पित है जो भारतीय समाज में मनुष्यों को समान दर्जा दिलाए जाने के लिए संघर्षरत हैं। यह समर्पण उनकी मंशा व मानसिकता को पाठकों के सामने उद्घाटित करता है।
भारतीय समाज के पिछड़े वर्ग में राजनैतिक महात्वाकांक्षाओं का आगाज गुलामी के दौर में ही दक्षिण में हो चुका था मगर उत्तर भारत में लंबे समय तक कांग्रेस राजनैतिक क्षेत्र में पिछड़े वर्ग की हिमायती के रूप में अपना स्थान बनाए रखी। मंडल आयोग के गठन एवं उसकी सिफारिशों के पश्चात कांशीराम ने उन सिफारिशों के क्रियान्वयन हेतु पिछड़े वर्ग को संगठित कर नए समीकरण की शुरूआत की। इस पुस्तक में इस जागृति और आंदोलन पर भी चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि कांशीराम के उदय से भारतीय राजनीति में न सिर्फ हिन्दू बल्कि मुसलमानों के भी पिछड़े वर्ग की प्रतिष्ठïा पुन:स्थापित होने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। दरअसल आदिकाल से उत्तर भारत में सामाजिक आंदोलन कभी भी व्यापक रूप से परिवर्तन कर पाने में सक्षम नहीं रहे। उत्तर भारत में राजनैतिक सत्ता ही जातीय प्रतिष्ठïा या सामाजिक व्यस्था में जातीय समीकरण के उत्थान व पतन की कारक रहीं। इस बात पर लेखक ने कुछ पिछड़ी जनजातियों की शासक व विजयी जातियों एवं समुदाय के वीर पुरुषों का जिक्र किया है।
अंतिम अध्याय में लेखक पिछड़े वर्ग में शामिल जातियों की हड़ताल करते हुए एक बार फिर कार्य के आधार पर जातियों की व्याख्या एवं वर्गीकरण करते हुए मंडल आयोग की सिफारिशों के अनुसार अधिकृत रूप से पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों का विस्तृत विवरण देते हैं। इस सूची में सभी धर्मों एवं समुदाय की पिछड़ी जातियों का विवरण है। इसी अध्याय में वे पिछड़े वर्ग की समस्याओं के कारणों एवं उसके समाधान की संक्षिप्त चर्चा करते हैं। आरक्षण के पक्ष विपक्ष में प्रश्नोत्तरी के माध्यम से चर्चा की गई है। आरक्षण के समर्थन में उनके तर्क एवं व्याख्या समीक्षा में शामिल नहीं किए जा सकते क्योंकि ये उनके अपने विचार हैं जो किसी शोध के नहीं अपितु नैतिक व समतामूलक समाज की पक्षधरता को रेखांकित करते हैं। लेखक के इन विचारों से पाठक अपनी समझ या मानसिकता के अनुसार सहमत या असहमत होने का पूरा अधिकार रखता है।
संजीव खुदशाह छत्तीसगढ़ के हैं। इस बात का उल्लेख दो कारणों से आवश्यक सा लगता है। पहला इसलिए कि पूरी पुस्तक की भाषा बहुत सौम्य और विनय प्रधान है। स्वर कहीं भी आक्रामक या आरोपात्मक नहीं होते जबकि हाल के वर्षों में इस तरह का अधिकतर लेखन आक्रामक ही रहा है। यह शायद इसलिए भी है कि छत्तीसगढ़ में प्राचीनकाल से ही प्रचलित सामाजिक व्यवस्था उस आक्रामक व वीभत्स रूप से नहीं रही, मगर इस जनजातीय बाहुल्य क्षेत्र में उत्तरीय औपनिवेशकों के आगमन के साथ वर्ण व्यवस्था की जड़ें फैलती गई। दूसरा महत्वपूर्ण कारण इस क्षेत्र से होने के बावजूद संजीव खुदशाह की पिछड़े वर्ग की इस वृहत्तर शोधपरक पुस्तक में स्थानीय पिछड़े वर्ग की लगभग अनदेखी निराश करती है। छत्तीसगढ़ में भी पिछड़े वर्ग के पुनरुत्थान के लिए लगातार संघर्ष हुए हैं। हालांकि उनकी पुस्तक प्रांतीय या क्षेत्रीय सीमाओं में बांधकर नहीं देखी जा सकती मगर विभिन्न समाज सुधारकों के संक्षिप्त परिचय में छत्तीसगढ़ के ख्यातनाम और सतनाम के प्रवर्तक गुरु घासीदास की अनुपस्थिति कुछ निराश करती है।
आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग पुस्तक में लेखक ने बहुत परिश्रम व लगन से शोध कार्य किया है। यह पुस्तक संजीव खुदशाह की पूर्व कृति ''सफाई कामगार समुदाय'' की अगली कड़ी के रूप में सामने आई है। ''सफाई कामगार समुदाय'' काफी चर्चित पुस्तक रही है। यह पुस्तक उसी श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए पिछड़े वर्ग की वर्तमान स्थिति को उजागर करती है। लेखक ने सभी वर्ण व वर्ग की व्याख्या में पूरी तटस्थता बरती है। उनकी खोजपूर्ण पुस्तक में हालांकि सभी तथ्यों एवं उद्धहरण को शामिल किया जा पाना संभव नहीं हो सकता फिर भी यह एक गंभीर विमर्श की मगर पठनीय पुस्तक है। प्रथम कृति ''सफाई कामगार समुदाय'' के पश्चात लेखक संजीव खुदशाह की ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग'' लंबे अंतराल के पश्चात आई है मगर इस पुस्तक के लिए की गई मेहनत के परिणामस्वरूप शोधार्थियों के साथ ही आम पाठकों के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है।