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07 जुलाई 2011

आँख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है ?

रही ना ताक़त-ए-गुफ़्तार, और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे  कहिए के आरज़ू  क्या है ? 

वो चीज़ जिसके लिए हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाय बादा-ए-गुल-फाम-ए-मुश्कबू क्या है ?
 
रगों में  दौड्ते फिरने  के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है ?
 
 जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा
कुरेदते  हो जो अब  राख,  जूस्तजू क्या  है ?
 
 हर एक बात पे कहते हो तुम के  तू क्या है ?
तुम्हीं कहो के ये अंदाज़-ए-गुफ्तगू क्या है  ?