''यू.पी.ए. गठबंधननीत केंद्र सरकार ने माननीय उच्चतम न्यायालय में एक हलफनामा दाखिल कर यह दावा किया था कि मर्यादापुरूषोत्तम श्रीराम का कोई अस्तित्व ही नही है, और न ही उनके जीवन चरित्र ''रामायण'' का कोई वैज्ञानिक आधार है।'' तमिलनाड़ू के मुख्यमंत्री नास्तिक श्री करूणानिधी ने ''श्रीरामसेतु'' निर्माण मुद्दे पर ''श्रीराम'' के इंजिनियरिंग की डिग्री के बारे में सवाल उठाया था।
''श्रीरामजन्म भूमिं विवाद के अंतर्गत ''माननीय उच्च न्यायालय'' के दिनांक ३०.०९.१० को आये फैसले नें श्रीरामजी के अस्तित्व की सत्यता को प्रमाणित कर दिया, साथ ही यह भी कि उनका जन्म अयोध्या के उसी स्थान पर हुआ जहां ''हिन्दुमत''है, इससे ''रामायण'' की प्रामाणिकता भी सिद्ध होती है। अब सरकार को उक्त गलती को सुधारते हुए श्रीरामसेतु को विश्व धरोहर घोषित कराने में अग्रणी भूमिंका निभानी चाहिए, क्योंकि उक्त फैसले से रामायण के पात्र ''श्रीराम'' श्रीराम से ''रामायण'' और रामायण से ''श्रीरामसेतु'' की प्रमाणिकता भी सिद्ध होती है। यही नहीं अगर भारत सरकार ''श्रीरामसेतु'' को तोडऩे के स्थान पर यदि ''जिर्नोद्धार'' का विचार करें तो यह राष्ट्रीय सम्पदा के साथ-साथ राष्ट्रीय महत्व वाला सेतु और दूध देती गाय बन जाएगा।
हमारे देश में एक परम्परा रही है कि जब तक पश्चिमीं देशो द्वारा हमारी किसी भी धारणा, विचारधारा, कार्य, वस्तु, या सांस्कृतिक विरासत को मान्यता सर्टीफिकेट नहीं मिल जाता, हम लोग इसी संसय में रहते है कि यार क्या ऐसा हो सकता है्? क्या ऐसा होना चाहिए? क्या हमें मानना चाहिए? ऐसे संसय में हममें से हर कोई एक ही राग अलापने लगता है कि सबूत चाहिए और हम तृप्ति के लिए विदेसियों के स्पष्टिकरण और प्रमाणिकता की राह तकते है। जैसे कि पेटेंट देने और प्रमाणीकरण का ठेका उन्होने ही ले रखा हो। ऐसा क्यों होता है कि सिर्फ हमारे देश की चीजो को ही प्रमाण की जरूरत पड़ती है? कभी उन लोगो को प्रमाणित किया जाने की जरूरत नहीं पड़ती? उन्होने जो कह दिया तो वह ब्रम्हवाक्य हो गया और हमने जो कह दिया शो कुछ नहीं? आज हमारे उद्योगो को पश्चिम की मान्यता की जरूरत पड़ती है, हमारे देश में कोई अमीर है, है तो कितना अमीर है, अगर नहीं है तो कितना नहीं, हमारे देश में कितने गरीब है वह भी पश्चिम तय करता है, हमारे शैक्षणिक संस्थानों की रेंकिंग भी वही से होती है, हम आस्कर के लिए मरे जाते है। पूरे विश्व को मालूम है कि हमारे देश में क्या है क्या नहीं है, वैसे हमारे पास भी आकड़े है, पर क्या करें उसपर ऑडिटर के हस्ताक्षर नहीं है। कुल मिलाकर हम पश्चिम के देशो द्वारा किये गये ऑडिट के बलबूते देश चला रहे है। हमारा स्वआकलन का कोई पैमाना नहीं है और दूसरों को आकलित करने की क्षमता हममे नहीं है। फिर भी हम गर्व से कहते है कि हम हिन्दुस्तानी है, हम विश्व गुरू हैं? इस बार की समस्या तो पहले से बहुत ही ज्यादा गम्भीर है क्योंकि इस बार भारतवर्ष के इतिहास पर ही प्रश्र चिन्ह लगा दिया गया क्योंकि हमारी आदिकाल की सवैंधानिक पुस्तकों चारो वेद, इतिहास पथप्रदर्शक एवं पूज्य रामायण एवं श्रष्टिरचियता अवतार भगवान श्रीराम पर ही प्रश्र चिन्ह लगा दिया गया। यह तुक्ष मानसीकता कैसे उत्पन्न हुई और किसने उत्पन्न की यह तो बहुत ही पेचिदा और अन्दर का राज है पर भारतीय संस्कृति की इसमें गलति सिर्फ इतनी सी थी कि हमारे वेदो हमारी रामायण पर पश्चिमी देशो की हस्ताक्षरमय सील नहीं लगी थी। सील इसलिए नहीं लग पाई क्योंकि ये इतिहास तब का है जब इन सील लगाने वालों का अस्तित्व ही नहीं था। इसलिए जब-जब प्रमाण देने की बारी आई तो उन्होने हमारे इतिहास और हकिकत को ही नकार दिया। अब विडम्बना ये है की हमारे पुरातत्वविद, इतिहासकार, राजनेता, विद्वान सभी विदेशी गुलामी की मानसिकता से कहीं ना कहीं घिरे हुए है, क्योंकि विद्वानों, पुरातत्वविदों, इतिहासकारों में से ज्यादातर ने अंग्रेजी शिक्षा ले रखी है, बाबर इतिहास, अमेरिकी इतिहास, यूरोपीय इतिहास सबकों मालूम है। इनमें से कोई नहीं कहेगा कि वे भरतवंशियों के इतिहास से वाकिफ है। इसका सबसे बड़ा कारण है हमारी शिक्षा पद्धति जो विदेशी शिक्षा पद्धति की नकल है, और इसे बदलना हमारे देश के अग्रणी जो खुद विदेशी मानसिकता के गुलाम है, के बस की बात नहीं है।
वैसे तो हिन्दू समुदाय के सहनशीलता, सहिष्णुता और नैतिकता का फायदा उठाकर हमेशा ही इसको छति पहुचांने की कोशिशे की जाती रही है, पर इतिहास में एक और बहुत बड़े विवाद ने तब जन्म लिया जब 2005 में केंद्र सरकार ने ''सेतुसमुद्रम'' परियोजना जिसके तहत तमिलनाडु को श्रीलंका से ''श्रीरामसेतु'' को तोड़कर जोड़ा जाना था की घोषणा की। इसके पीछे सरकार का तर्क यह था कि इससे देश के बहुत बड़े व्यापारिक हित जुड़े है। योजना के पूर्ण होने पर हमारे व्यापारिक जहाजों को लम्बे मार्ग से जाने के बजाय एक छोटा एवं सुलभ मार्ग मिल जाएगा जिससे लगभग 2० हजार करोड़ रूपये का तेल इंधन बचाया जा सकेगा। परियोजना का विरोध किसी ने उसके आर्थिक हितो के आधार पर नहीं किया बल्कि उसके दुष्परिणामों के विस्लेशन के आधार पर किया।
श्री राम सेतु |
रामसेतु तोड़े जाने से बहुत बड़ी संभावना है कि सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं से केरल में जो जनजीवन का नुकसान होगा वह अकल्पनीय है। चूंकि श्रीराम सेतु इन प्राकृतिक आपदाओं एवं मानव सम्पदाओं की बीच एक दीवार की भांति हमारी रक्षा कर रहा है। हजारों मछुआरे जो सेतु के आस-पास मछली पकड़कर अपना जीवन यापन कर रहे है वे बेरोजगार हो जाएँगे, इस क्षेत्र की दुर्लभ शंख व शिप सम्पदा जिससे १०० करोड़ रुपए से अधिक की वार्षिक आय होती है, से वंचित होना पड़ेगा, यूरेनियम का सर्वश्रेष्ठ विकल्प थोरियम जिसका विश्व में सबसे बड़ा भंडार उसी सेतु के आसपास है, विलुप्त हो जाएगा। कई प्रकार के समूद्रीय जीव-जन्तुओ की कई दुर्लभ प्रजातियाँ नष्ट हो जाएँगी। प्रमाणिकता चाहिए तो देश लीजिए- प्रकृति से खिलवाड़ करने का नतीजा पश्चिमीं जगत भुगत रहा है। जिस प्रकार तेजी से प्रकृति के सिद्धांतों से खिलवाड़ करके वहां निर्माण चल रहा है, प्रकृति उसी अनुपात में अपना रौद्र रूप धारण कर विनास लीला रच रही है, प्रकृति भी एक सीमा तक ही अति बरदास्त कर सकती है, अति करने का परिणाम सदैव भयानक होगा। हमारे सभ्य समाज के प्रतिनिधियों एवं बुद्धिजीवियों ने इन्ही सब विस्लेशनों के आधार पर इस परियोजना का विरोध किया। विरोध में माननीय उच्चतम न्यायालय में वाद दाखिल किया गया।
टीस इस परियोजना से उतनी नहीं है, हिन्दु तो अपनी आस्था, विश्वास और अधिकार क्षेत्र से भी ज्यादा अपनी सहनशीलता के बलबूते बहुत कुछ बरदास्त करता आया है। दिल को धक्का तो तब लगा जब ''सेतु समुद्रम'' योजना का सैद्धांतिक विरोध करने वाली याचिका के जवाब में सितंबर 2007 में कांग्रेसनीत सरकार ने न्यायालय के समक्ष हलफनामा दायर करके मर्यादापुरूषोत्तम भगवान श्री राम के अस्तित्व को ही नकार दिया, साथ ही यह भी दावा किया कि उनके जीवन आधारित जीवनी ''रामायण'' का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। ''रामसेतु'' के बारे में उनका तर्क था कि ये मानव निर्मित न होकर प्रकृति निर्मित है। ''रामायण, वेद, पुरान'' जैसे स्वंयंसिद्ध ग्रंथो में श्रीरामसेतु का वर्णनजिस स्थान पर होने की व्याख्या है, सेतु वही पर और उसी अवस्था में पाया गया, जिसे भी सरकार ने प्रकृति निर्मित मानकर नकार दिया। कई विद्वावन भूगोलविदों के तर्को को नकार दिया गया। यहां यह स्पस्ट तथ्य है कि पथ्थरों एवं चट्टानों से निर्मित वह सेतु समूद्रीय भूंमि-चट्टानों से मेंल नहीं खाता अर्थात सेतु प्रकृति निर्मित नहीं है। दूसरा हमारे पूर्वजो के पास वर्तमान तकनिक या अमेरिकी सेटेलाईट नहीं था जिससे उन्होने श्रीलंका और भारत को जोडऩे वाले पुल की तस्वीर लेकर और उसी आधार पर ''रामायण'' जैसें ग्रन्थ की रचना कर डाली हो। निश्चिंत ही उन्होने कुछ देखा, सुना, महसूस किया और उसे अपनी लेखनी में समाहित किया होगा। प्रकृति निर्मित पुल और मानव निर्मित पूल की पहचानने के लिए किसी इंजिनियरिंग की आवश्यकता नहीं है इसे एक सामान्य मनुष्य आसानी से सत्यता जांच सकता है।
सरकार ने ''सेतु समुद्रम'' परियोजना की आड़ में अपने तर्को के आधार पर मर्यादापुरूषोत्तम भगवान श्रीराम का अस्तित्व नकारा तो उसी के साथ हिन्दु धर्म के अस्तित्व पर ही प्रश्र चिन्ह लगा दिया। 'उस भवन का अस्तित्व ही क्या जिसकी नीव को ही नकार दिया गया हो? सिर्फ इतना ही नहीं कांग्रेस समर्थित तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि ने तो अपने कद और हद से ही आगे निकलकर हिन्दुओं से यह प्रश्र कर लिया कि राम ने इंजीनियरिंग की डिग्री कहां से ली थी? महाशय को कौन बताए जिस विधाता ने इस पृथ्वी पर जीवन का निर्माण किया तब भी उसे किसी डिग्री की जरूरत नहीं पड़ी तो क्या उसे एक पुल के लिए डिग्री की जरूरत पड़ेगी? क्या उनके मत में इंजिनियर को ही लाइसेंस है कि वो पुल बना सके? जब इंजिनियरिंग कालेज नहीं बने थे तब पुल, भवन और नई चीजे कैसे बनाई जाती थी? ऐसे कई प्रश्र है जिनका समाधान बड़बोले और पथभ्रष्ट नेता कभी नहीं कर सकते। फिर भी सनातन धर्मिंयों ने उनके बड़बोलेपन और मुर्खतापूर्ण कथनों को इस तरह बरदास्त कर लिया मानों एक पागल के चिल्लाने से सत्य बदल नहीं जाता। हमारें देश के भ्रष्ट और निकम्मे शासनकर्ताओं ने भारत के उन महान नेताओं और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियो की बातों को भी झुटला दिया जिन्होने श्रीराम चरित्र से प्रेरणा एवं शक्ति लेकर भारतमाता के चरणों की सेवा करते हुए महान कार्य किये। हालांकि केंद्र सरकार ने बाद में अपना हलफनामा वापस ले लिया और श्री करूणानिधि ने भी अपने शब्द वापस ले लिये। लेकिन यह तो उनकी विश्वसनियता पर ही प्रश्र चिन्ह लगाता है। यदि वे ''श्रीराम'' और ''रामायण'' के पात्रो के काल्पनिक होने की अपनी दलील का कोई साक्ष्य रखते थे तो उन्हे अपनी बात पर अटल रहना चाहिए था और अपनी बात सिद्ध करना था। परन्तु हुआ ये कि वे 'बिन पेंदी के लोटे' की तरह जिधर वजन उधर वे पलट गये।
चाहे ''वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद)'' हो, उपनिषद् हो, ''पुरान'' हो या ''रामायण'' हो इन्होने हमेशा ही वैज्ञानिक सिद्धांतो की आधारसिला रखी है। चाहे वह खगोल, विज्ञान, आयुर्वेद, तकनीकी, रचनात्मक, शिक्षा पद्धति, जीवन, मरन, हर क्षेत्र के लिए प्रतिपादित एवं सिद्ध सिद्धांत दिये है। अमेरिकी ''राष्ट्र्रीय वैमानिकी और अन्तरिक्ष प्रबंधन'' (नासा) ने भी वेदों में छिपे ज्ञान को प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक माना है। हमारे वेदो द्वारा दी हुई व्यवस्था को ही तोड़मरोड़कर विश्व पटल का जीवन सिद्धांत गड़ा गया है यह हम ''विश्व गुरू'' होने के नाते गर्व से कह सकते है। कभी हमारे वेदो में संशोधन की आवश्यकता नहीं पड़ी क्योंकि हमारे वेदो ने कभी भी ऐसा कोई अवैज्ञानिक, सिद्धांतहीन या आधारहीन, विचारधारा या व्यवस्था नहीं दी जो सत्य से परे हो। जैसा कि विश्व में फले-फूले कुछ धर्म ग्रंथों के सिद्धांतो, व्यवस्थाओं में कुछ खामियां देखी जा सकती है जिन्हे या तो सुधारा गया या फिर आज भी चलन में है, जैसे की पृथ्वी का गोल नहीं चपटा होना, ''खून के बदले खुन वाली न्याय व्यवस्था, नारी जाती के हाथो में बेडिय़ा डालकर मानव अधिकारों का हनन करने वाली व्यवस्था। हिन्दूओं ने बलात धर्मान्तरण और प्रशासनिक कुचक्रो को सदियों से सहा है, पर कभी हमें यह शिक्षा नहीं दी गई कि दूसरे धर्माे के अनुयाईयों को काम, दाम, दम्भ, भेद का लालच और डर दिखाकर अपने धर्म में मिलाकर और पूरे विश्व को धर्मांतरित किया जाय। आज हमारे देश मे चारो ओर विभिन्न धर्मो के बीच हिन्दू अनुयायियों पर अपना-अपना धर्म थोपकर अपनी जनसंख्या बढ़ाने का कुसडय़त्र चल रहा है। यह कुसंडय़ंत्र एक मिशन के रूप में चलाया जा रहा है। हमारे वेदो, पुरानों आदि धर्म ग्रंथो ने हमें ''सर्वे भवन्तु सुखीन: सर्वे सन्तु निरामया'', ''सर्व धर्म समभाव'' और ''अयं निज: परोवेति, गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥''
का संदेश दिया है, और सिर्फ बाते ही नहीं की उसे कैसे व्यवहार में उतारा जाता है उसकी विधि भी बताई है। कभी भी हमें वर्गो में या धर्मो में बांटने की कोशीष नहीं की। हम भरतवंशियों ने 'वेदाज्ञा' का कभी उलंघन किया हो ऐसा वाक्या मुझे कहीं नजर नहीं आता। जब हमारे मूल ग्रन्थ हमें जीवन और मृत्यू के स्वयंसिद्ध सिद्धांत हमें दे रही है तो फिर क्यूं नहीं इन्हे ब्रम्हवाक्य माना जाये? क्यों हम इन पथभ्रष्ट राजनेताओं, विदेशियों का मुह ताके? क्यों हम अपने इतिहास के प्रमाणिकता के लिए किसी न्यायालय में पैर रगड़े?
हमारे देश की संस्कृति को जितना इस्लामी आक्रमणकारी, अंग्रेजो की दमनकारी नीतियां भी नुकसान नहीं कर पाई उतना नुकसान हमारे अपने लोगों ने किया है। विश्व साम्राज्य से सिमटकर आज हम एक छोटे से भू-भाग में संकुचित होकर रह गये है, तो इसका दोष हम किसी को नहीं दे सकते इसके लिए हमें खुद अपने अन्दर झांकना होगा। जो सत्य होता है उसे ही बार-बार सिद्धता की परिक्षा देनी पड़ती है, ऐसा चलन होता जा रहा है। वेदो, पुरानों, उपनिषदों, रामायण और हिन्दू इतिहास हमेशा स्वयं सिद्ध रहा है और वक्त आने पर हमेशा ही अपनी सत्यता सिद्ध की है। सत्य को कभी कानून से बांधकर खेला नहीं जा सकता। जैसा कि राजनैतिक स्वार्थवस अपने हित साधने के लिए मर्यादापुरूषोत्तम आराध्य भगवान श्रीराम के अस्तित्व को नकारने की कोशीष की गई। हमारे नीव को नकार दिया जाता तो कंगूरे तो खुद गिर जाते, पर ''अंत भला तो सब भला'' उसी कानून ने अंतत: श्री विष्णु अवतार भगवान श्रीराम की प्रमाणिकता को स्वयंसिद्ध माना। आखिर हमें एक बार फिर ''आधार कार्ड'' मिल ही गया।
अंतत: मेरा यही मत है कि यदि हम विदेशी गुलाम मानसिकता, शासन पद्धति और शिक्षा व्यवस्था को स्वंतत्र कराकर भरतवंशी राजतंत्र की वापसी करा पाये तो निश्चित ही हमारा देश विश्व का अग्रणी हो जाएगा। जिस हालत में अभी हमारा देश है अगर उसी हालत में हम आगे बढ़ भी गये तो हमारे अस्तित्व का कोई आधार नहीं होगा, क्योंकि 'गुलाम' अगर 'धन्ना सेठ' हो भी गया तो भी वह अपनी गुलामीं की मानसिकता नहीं छोड़ पाता। इसलिए आओं हम फिर भारतवंशी राजतंत्र की ओर चले और अपने ''विश्व गुरू'' की छवी को सार्थक करे।
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