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22 अक्तूबर 2010

'शिकारी' नेता आएगा, चुनावी जाल बिछाएगा

बिहार के सुपौल, मधेपुरा और सहरसा ज़िले को मिथिलांचल का कोसी अंचल भी कहा जाता है. दो साल पहले कोसी नदी ने नेपाल-बिहार सीमा क्षेत्र में कुसहा तटबंध तोड़कर बिहार के इन तीनों ज़िलों में भारी तबाही मचाई थी.

इस पीड़ा से जुड़े सवाल यहाँ के चुनावी मुद्दों वाली बहस में पीछे छूट गए लगते हैं.

इस बार छह चरणों में हो रहे बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में ही कोसी अंचल के मतदाता वोट डालेंगे.

लेकिन वोट किसे और क्यों देंगे, इस सवाल पर बंटे हुए मतदाताओं के सामने प्राय सभी प्रमुख दलों ने जाति, व्यक्ति, पैसा और परिवार से जुड़े तमाम चारे डाल दिए हैं

चुनावी माहौल ऐसा बना दिया गया है कि कोसी-प्रलय के समय भारी जनाक्रोश से भयभीत सत्ता ने कोसी अंचल पुनर्निर्माण का वायदा अभियान चला कर उसे ठंडा किया.
लेकिन वो वायदा ऐसा ठंडा पड़ा कि फिर पांच साल के लिए जनादेश मांग रही उस सत्ता के सामने गरम सवाल बन कर खड़ा भी नहीं हो सका.
कोसी का प्रकोप


यहाँ तक कि विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल (राजद), लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) और काग्रेस ने भी कोसी अंचल की इस त्रासदी को बड़ा चुनावी मुद्दा बना कर यहाँ के लाखों बाढ़-पीड़ितों में बेहतर पुनर्वास की उम्मीदें जगाना ज़रूरी नहीं समझा.
कोसी-त्रासदी का सबसे ज़्यादा भुक्तभोगी ज़िला है मधेपुरा. वहाँ के मतदाता चुनाव के संदर्भ में इस क्षेत्र के रुख़ या रुझान का अपने ही नज़रिए से दो टूक विश्लेषण कर डालते हैं.
यहाँ भी राजपूत-ब्राह्मण को अंदर से लालू और नीतीश विरोधी बताने, मुस्लिम-यादव के बीच फिर से तालमेल होने या कांग्रेस के पक्ष में सवर्ण, दलित और मुस्लिम समाज के बढ़ते रुझान की ही चर्चा लोगों के बीच अधिक हो रही हैऐसे विश्लेषणों से अलग इस कोसी अंचल को राज्य का सबसे अधिक पिछड़ा इलाक़ा बनाए रखने वाली आपराधिक राजनीति की पहचान और उस पर चोट जैसी चुनावी समीक्षा इस ' पेड न्यूज़ ' के ज़माने में होती कहाँ हैलोक-राशि के वैध-अवैध उपभोग वाले राजसुख से जुड़ी राजनीति अपने तमाम चुनावी वायदों से बेपरवाह दिखती हैक्योंकि चुनाव के समय मतदाता भी अपने हक़ वाले असली मुद्दों से भटकते हुए फिर से तोते की तरह शिकारी नेता के चुनावी जाल में फंस जाते है.

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