Saturday, August 7, 2010
Wednesday, July 28, 2010
Monday, July 19, 2010
आस्थाओं के बहाव से होती है भरपूर बारिश ?
मेंढक राजा मेंढक दे
पानी की बरसात दे ।
के नारे लगाकर शहर भर मे घुमे । दरगाहों पर चादरे चढ़ी, ग्रन्थ साहिब का पाठ गुरुद्वारे मे हुआ चर्च मे प्रेयर की गई तो मंदिरों मे विविध धार्मिक आयोजन किये जाने लगे। सर्वधर्म प्रार्थना सभा का आयोजन भी हुआ। लोग शहर-गाँव छोड़ जंगल मे उजमनी मनाने यानी वहां जाकर भोजन बनाकर बारिश की दुआ करने लगे। मगर हाय रे बारिश ! होने का नाम ही नहीं लेती।
आज जब शहर गाँव छोड़ कर बाहर जंगल तलाशने पर पेड़ों का झुरमुट तक नजर नहीं आता और बारिश के प्रति हमारा स्वार्थ ? आस्थापरक? हम चाहते है बारिश हो बादल बरसे, चार महीने तक हमारे सर पर बने रहे। मगर हमारी करनी जो कहानी कहती है वो समस्त प्रकृति विरुद्ध ही है। हमें भूमि चाहिए मगर वृक्ष नहीं । हम खेती चाहते है , पानी चाहते है पर जंगल और जानवर नहीं ।
अब उजमानी की ही ले, रोज सवेरे बच्चो के लिए टिफिन तैयार होते हैं जिन्हें बच्चे सामूहिक रूप से रोज घर के बाहर जाकर खाते है, यह पूरे साल चलता है। अगर घर के बाहर जाकर भोजन सामूहिक रूप से करने से बारिश होती तो यह सारा देश रोज़ पानी की बरसात से लबरेज़ होता।
बारिश का एक पहलु यह भी है की वह अपने साथ विध्वंस भी लाती है। बाढ़ और सूखा उसके दो भिन्न पहलु हैं। जिन जगहों पर बारिश नहीं होती वहां के लोग बारिश होने की मन्नते करते हैं। जहां बाढ़ आ जाती वहां भगवान् से प्रार्थना की जाती है की कदापि धमाकेदार ना हो। अब भगवान् को यह समझ मे नहीं आता होगा की बारिश कहाँ करनी है और कहाँ नहीं । वे आखिर सुने तो किसकी ।
सन २००० से मध्य भारत के प्रान्त सूखे का सामना करते आ रहे हैं। मध्यप्रदेश मे जंगल लगातार कट रहे हैं बाघ की आबादी घट गई है, वृक्षों की लगातार बलि ली जा रही है। सड़कें फोरलेन होते ही जमीने महंगे दाम की हो गई। जमीनों का डायवर्शन होने लगा। सड़के बनाने के लिए किनारे लगे वृक्ष काट देने उपरान्त अब बीच मे बोगनवेलिया कनेर जैसी झाडीनुमा पौधे लगाए जाने लगे है और किनारों की सुध लेने की कोई कोशिश नहीं है ।
आज जब चिता की कीमत डेढ़गुना बढ़ गई है, महंगाई के नाम पर लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं ऐसे मे अजहर हाशमी साहब की कविता की पंक्तियाँ याद आती है जो पृथ्वी दिवस पर नईदुनिया अखबार मे छपी हैं, लिखते हैं :
बड़ी बड़ी बातों से
नहीं बचेगी धरती
वह बचेगी
छोटी-छोटी कोशिशों से
मगर हमारी मानसिकता का निरंतर छोटा प्रयास नहीं किया जा रहा है और वह प्रयास पौधों की परवरिश से सम्बंधित है.
चौथा स्तम्भ है कि वह लगातार यह बताता है की यह फोटो जिसमे पेड़ के ठूंठ नजर आ रहे हैं यह किस पेड़ के है, कब और कहाँ इन्हें काटा गया है। जिम्मेदार विभाग कौन है जिसके लापरवाह कर्मचारी हाथ पर हाथ धरे बैठे है। मगर यह कभी नहीं बताता की कहाँ पेड़ लगाए जा सकते हैं. उनकी सुचना ऐसी लगती है जैसे वे लक्कड़ चोरो से यारी किये बैठे है और उन्हें बताते रहते है कि और कहाँ कहाँ पर चोरी से लकडियाँ काटी जा सकती है. "जल ही जीवन है" का मन्त्र अब "जल ही जीवन के लिए आवश्यक उत्पाद है" मे बदल गया है. इसलिए कमर्शियल प्रयासों कि जरुरत है तुच्छ छोटे प्रयास करने के बजाय इश्वर आस्था पर निर्भर रहने कि जरूरत है । क्योंकी पानी मे आस्था का पत्थर डुबाने या अन्य टोटके की मानसिकता ही है जो मानसून के दिनों मे बरसात कराती है।
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