पश्चिम बंगाल सरकार की हार या वामपंथी विचारधारा की?
पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और उसके सहयोगी दलों की ऐतिहासिक हार के बाद क्या भारत की संसदीय राजनीति में वामपंथ अप्रासंगिक हो गया है?पश्चिम बंगाल में लगातार चुनाव जीतकर रिकॉर्ड बनाने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और वाममोर्चा की बाक़ी पार्टियाँ तीस वर्ष के बाद विधानसभा में विपक्ष की क़तारों में बैठेंगी. क्या वाममोर्चे की इस दारुण हार को पूरी वामपंथी विचारधारा की हार माना जा सकता है या फिर पश्चिम बंगाल की जनता ने सिर्फ़ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों को ख़ारिज किया है?
काल,किसी पर भी रहम नही करता है. चाहें कोई भी हो. कोई भी विचार समय के सापेक्ष तो हो सकते हैं लेकिन विचार धाराऐं समयाकालीन रहीं हों ऐसा आमतौर पर मुमकिन नहीं होता है. भारत के वामपंथियों को यह सबक तब ही ले लेना चहिए था जब धयानमेन चौक पर लेलिन की पुतिमा को उनके समथॅकों ने तहस-नहस कर दिया था. बावजूद इसके इस देश वामपंथी 34 साल तक पशिचम बंगाल में शासन करने के बाद भी मुगालते रहे जिसका नतीजा सामने है.
जवाब देंहटाएंवामपंथ तो विचाराधारा है जिसका इस जीत से कोई सरोकार नहीं है. बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी क्या अपनी विचारधारा पर चल रही थी? उदाहरण सिंगुर, नंदीग्राम, लालगढ़.....
जवाब देंहटाएंvarun kumar
जब वामपंथियों ने टाटा को कारखाना बनाने के लिए ज़मीन दी तो, ममता ने इसका विरोध किया था. अब ममता जी क्या विकास कर पाएँगी?
जवाब देंहटाएंये हार पिछले कुछ साल की कार्यप्रणाली का नतीजा है. प्रकृति का नियम है परिवर्तन, इसमें कुछ देर ज़्यादा हो गई. जिस विचारधारा के बल पर पिछले 34 साल से वामपंथी सत्ता में थे, लोग अब उससे ऊब चुके हैं.
ऐसा कतई नहीं है कि वामपंथ अप्रासंगिक हो गया.विचारधारा कभी मरती नहीं है. वामपंथियों के गढ़ में चुनावी हार विचारधारा पर प्रश्नचिन्ह खड़े नहीं करती.वामपंथी माने क्या? दरअसल पश्चिम बंगाल में वामपंथ था ही कहाँ? वो तो विचारधारा की आड़ में पूंजीपतियों की दलाल सरकार थी.मार्क्सवाद अप्रासंगिक नहीं हो सकता, उसे मानकर चलने वाली पार्टी भले ही अप्रासंगिक हो जाये.रूस के पतन पर भी ऐसे ही सवाल उठाये गए थे.दरअसल हमें कारणों पर ध्यान देना चाहिए.
ये वामपंथी विचारधारा की हार नही है बल्कि 34 सालों तक सीमित दायरे में रह कर वामपंथी सरकार द्वारा लोगों की इच्छा पूरी न कर पाना है.
वामपंथ विचारधारा के स्तर पर खत्म हुआ नहीं कहा जा सकता, हां बदलते वक्त के साथ यह अप्रासंगिक जरूर हो गया है। खासतौर से तब से जबसे इसके अनुयायी (वामपंथी) अपनी सोच और अपने निर्णय को अंतिम सत्य मानने लगे। शोषण के खिलाफ आनन्दोलन के तौर पर खडी हुई इस विचारधार के पोषक प. बंगाल में खुद शोषक बन गये। वहां के गावों में वामपंथी कैडर को नजर अंदाज कर कोई निजी निर्णय लेना भी लोगों के लिये मुश्किल हो गया था। ऐसे में जनमानस को उनके खिलाफ खडा होना ही था।
ये वामपंथी विचारो की हार नहीं है, ये सिर्फ सत्ता विरोधी जन आक्रोश है, भारतीय अर्थव्यवस्था एवम राजनीतिमे वामपंथी की महत्वपूर्ण उपस्थिति जरुरी है, आज जब केन्द्र सरकारमे ऊनकी गेरहाजरी से देश की प्रजा को अभूतपुर्व मुश्केलीओ का सामना करना पड रहा है. सरकार वैश्विकरण, खानगीकरण एवंम मुक्त बजार नीतिओमे आगे बढ रही है, प्रजा को मुर्ख बनाके ईधन के दाम बढा रही है, डिसईन्वेस्टमेन्ट के नाम पर मुल्यवान कंपनीओ बेचने को निकाली है, कोई बचा है ईन सब बात का विरोध करने वाला.आज की सरकारे सुप्रिम कोर्ट को भी नही मानते
जी हैं, ये वामपंथ का अंत है. नई पीढ़ी अब नए तरीके से काम करना चाहती है
वामपंथियों ने 34 साल तक राज कर के एक प्रशंसनीय काम किया है. इस चुनाव में उनकी हार ममता की वजह से नहीं बल्कि नक्सलवादियों, कांग्रेसियों और अप्रत्यक्ष तौर पर भाजपा के गठबंधन की वजह से हुई है. साथ ही जिन लोगों की ज़मीने गईं,उनके गुस्से की वजह से भी वामपंथियों की हार हुई. लेकिन ये सिर्फ एक बदलाव है, न कि मार्कस्वादी विचारधारा का अंत.
यह विचारधारा की नहीं बल्कि उस पर चलनेवालों की हार है. जहाँ भी, जिस भी व्यवस्था में जड़ता आने लगती है, समय के साथ चलने की क्षमता नहीं होती वह धीरे-धीरे अपनी प्रासंगिकता खो देती है. कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक तरफ तो वामपन्थ बंगाल में हार गया है वहीं भारत के एक के बाद एक ज़िले वामपंथी उग्रवाद की चपेट में आते जा रहे हैं. जहाँ शासक के रूप में वामपंथी असफल सिद्ध हुए हैं वहीं पूरे भारत की व्यवस्था भी नष्ट होती जा रही है.
धूमिल की एक कविता की एक पंक्ति है.
मगर मैं जानता हूं
मेरे देश का समाजवाद
माल गोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है
जिन पर आग लिखा है
पर उनमें बालू भरा है.
इसके बाद कुछ कहने की ज़रूरत नहीं बचती...
जब वामपंथियों ने टाटा को कारखाना बनाने के लिए ज़मीन दी तो, ममता ने इसका विरोध किया था. अब ममता जी क्या विकास कर पाएँगी?
जवाब देंहटाएंये हार पिछले कुछ साल की कार्यप्रणाली का नतीजा है. प्रकृति का नियम है परिवर्तन, इसमें कुछ देर ज़्यादा हो गई. जिस विचारधारा के बल पर पिछले 34 साल से वामपंथी सत्ता में थे, लोग अब उससे ऊब चुके हैं.
ऐसा कतई नहीं है कि वामपंथ अप्रासंगिक हो गया.विचारधारा कभी मरती नहीं है. वामपंथियों के गढ़ में चुनावी हार विचारधारा पर प्रश्नचिन्ह खड़े नहीं करती.वामपंथी माने क्या? दरअसल पश्चिम बंगाल में वामपंथ था ही कहाँ? वो तो विचारधारा की आड़ में पूंजीपतियों की दलाल सरकार थी.मार्क्सवाद अप्रासंगिक नहीं हो सकता, उसे मानकर चलने वाली पार्टी भले ही अप्रासंगिक हो जाये.रूस के पतन पर भी ऐसे ही सवाल उठाये गए थे.दरअसल हमें कारणों पर ध्यान देना चाहिए.
ये वामपंथी विचारधारा की हार नही है बल्कि 34 सालों तक सीमित दायरे में रह कर वामपंथी सरकार द्वारा लोगों की इच्छा पूरी न कर पाना है.
वामपंथ विचारधारा के स्तर पर खत्म हुआ नहीं कहा जा सकता, हां बदलते वक्त के साथ यह अप्रासंगिक जरूर हो गया है। खासतौर से तब से जबसे इसके अनुयायी (वामपंथी) अपनी सोच और अपने निर्णय को अंतिम सत्य मानने लगे। शोषण के खिलाफ आनन्दोलन के तौर पर खडी हुई इस विचारधार के पोषक प. बंगाल में खुद शोषक बन गये। वहां के गावों में वामपंथी कैडर को नजर अंदाज कर कोई निजी निर्णय लेना भी लोगों के लिये मुश्किल हो गया था। ऐसे में जनमानस को उनके खिलाफ खडा होना ही था।
ये वामपंथी विचारो की हार नहीं है, ये सिर्फ सत्ता विरोधी जन आक्रोश है, भारतीय अर्थव्यवस्था एवम राजनीतिमे वामपंथी की महत्वपूर्ण उपस्थिति जरुरी है, आज जब केन्द्र सरकारमे ऊनकी गेरहाजरी से देश की प्रजा को अभूतपुर्व मुश्केलीओ का सामना करना पड रहा है. सरकार वैश्विकरण, खानगीकरण एवंम मुक्त बजार नीतिओमे आगे बढ रही है, प्रजा को मुर्ख बनाके ईधन के दाम बढा रही है, डिसईन्वेस्टमेन्ट के नाम पर मुल्यवान कंपनीओ बेचने को निकाली है, कोई बचा है ईन सब बात का विरोध करने वाला.आज की सरकारे सुप्रिम कोर्ट को भी नही मानते
जी हैं, ये वामपंथ का अंत है. नई पीढ़ी अब नए तरीके से काम करना चाहती है
वामपंथियों ने 34 साल तक राज कर के एक प्रशंसनीय काम किया है. इस चुनाव में उनकी हार ममता की वजह से नहीं बल्कि नक्सलवादियों, कांग्रेसियों और अप्रत्यक्ष तौर पर भाजपा के गठबंधन की वजह से हुई है. साथ ही जिन लोगों की ज़मीने गईं,उनके गुस्से की वजह से भी वामपंथियों की हार हुई. लेकिन ये सिर्फ एक बदलाव है, न कि मार्कस्वादी विचारधारा का अंत.
यह विचारधारा की नहीं बल्कि उस पर चलनेवालों की हार है. जहाँ भी, जिस भी व्यवस्था में जड़ता आने लगती है, समय के साथ चलने की क्षमता नहीं होती वह धीरे-धीरे अपनी प्रासंगिकता खो देती है. कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक तरफ तो वामपन्थ बंगाल में हार गया है वहीं भारत के एक के बाद एक ज़िले वामपंथी उग्रवाद की चपेट में आते जा रहे हैं. जहाँ शासक के रूप में वामपंथी असफल सिद्ध हुए हैं वहीं पूरे भारत की व्यवस्था भी नष्ट होती जा रही है.
धूमिल की एक कविता की एक पंक्ति है.
मगर मैं जानता हूं
मेरे देश का समाजवाद
माल गोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है
जिन पर आग लिखा है
पर उनमें बालू भरा है.
इसके बाद कुछ कहने की ज़रूरत नहीं बचती...