भारत में बनता हुआ इंडिया
केन्द्रीय लोक सेवा आयोग ने हाल ही में एक आदेश जारी कर अंग्रेज़ी का एक प्रश्नपत्र अनिवार्य किया है. आयोग का यह आदेश अवश्य भारत सरकार की सहमति से जारी हुआ होगा. आयोग के इस षडयंत्र के खिलाफ कहीं कोई सुगबुगाहट नज़र नहीं आ रही है, जबकि इसके दूरगामी परिणाम बहुत साफ समझ में आ रहे हैं. आयोग का यह आदेश षडयंत्रपूर्ण इसलिये लगता है क्योंकि इसका कोई औचित्य आयोग या भारत सरकार सिद्ध नहीं कर सकती.
आज़ादी के बाद केन्द्रीय लोक सेवा आयोग की परीक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी था ओर इस कारण भारतीय प्रशासनिक सेवा के चयनित लोगों का आम चरित्र भी अंग्रेज़ी प्रशासन जैसा ही था जिसमें बातचीत से लेकर नीति निर्माण ओर क्रियान्वयन की प्रक्रिया में ब्रिटिश ढॉंचे के अनुसार महानगरों - उच्च वर्ग व श्रेष्ठि वर्ग के लोगो की बहुतायत थी. राष्ट्रीय भाषा के बोलने वाले अपने ही राष्ट्र में प्रशासनिक सेवाओं से बाहर धकल दिये गये थे. देश की प्रादेशिक और क्षेत्रीय भाषाओं के उन्ही लोगों को प्रशासनिक सेवाओं में स्थान मिल पा रहे थे जो अंग्रेज़ी परस्त हो चुके थे. जन्म से अंग्रेज़ी बोलने बोलने वाले अफसरशाहों की संतानें, राजा महाराजा जो आमतौर पर आज़ादी के आंदोलन के खिलाफ थे और अंग्रेज परस्त थे के परिजन तथा कुछ ऐसे परिवारों के लोग जिनकी आर्थिक क्षमता ब्रिटेन या बिदेशों में पढ़ने के लिये समर्थ थी, के ही सदस्य पहुंच पाते थे.
भारतीय प्रशासनिक सेवायें केवल उस इंडिया की प्रतिनिधि प्रवक्ता थी, जिनमें भारत के गांव और गरीब का कोई हिस्सा न था और न ही कोई भूमिका थी. परन्तु पिछले कुछ वर्षों में जब से केन्द्रीय लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं में परीक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी या ऐच्छिक हुआ था तब से भारत की प्रशासनिक सेवाओं में भारत की हिस्सेदारी बढ़ी और देश के गांव गरीब किसानों कर्मचारियों और यहां तक कि चाय बेचने वाले छोटे दुकानदारों के बेटों का चयन भी प्रशासनिक सेवाओं में होने लगा था.
विदेशी भाषा की कसौटी योग्यता के चयन के लिये सही मापदण्ड नहीं हो सकता और इसलिये जब अंग्रेज़ी की बाध्यता समाप्त हो गई तब हिन्दी भाषी ओर भारतीय भाषा के यथा मराठी, गुजराती, तेलगू, मलयाली, कन्न्ड़, उड़िया, पंजाबी बौर उर्दू भाषियों के ग्रामीण किसान और मजदूर परिवार के नवयुवकों को भी बड़े पदों पर जाने का अवसर मिलने लगा. पिछले कुछ वर्षों में देश के गरीबों, किसानों के बच्चों ने यह सिद्ध कर दिया कि अगर अंग्रेज़ी भाषा की कसौटी की बाध्यता न हो तो योग्यता, भारत के राष्ट्रªभाषा और भारतीय भाषाओं के बोलने वाले गांव ओर कस्बों के नौजवानों के पास कहीं ज़्यादा है और इसी को रोकने के लिये भारत सरकार और आयोग में बैठे अंग्रेज़ी के मानसिक गुलामों ने यह षड़यंत्र किया है.
कहने को तो अंग्रेज़ी का अनिवार्य पर्चा केवल 40 अंकों का है परन्तु समूची चयन प्रक्रिया को यह प्रभावित करेगा. यह एक सुविदित तथ्य है कि 2 से 3 प्रतिशत अंको में ही सारे चयनित प्रत्याशी सिमट जाते हैं. प्रतिस्पर्धा इतनी भारी होती है कि दशमलव 1-2 के अंतर में ही अनेकों प्रत्याशी मेरिट लिस्ट में रहते हैं और जब अंग्रेज़ी के प्रश्न पत्र में सीधे 20-20 अंकों का फर्क होगा तब स्वाभाविक है कि राष्ट्रभाषा और असली भारत की योग्यता पीछे कर दी जायेगी.
अगर अंग्रेज़ी के विशेष ज्ञान की आवश्यकता किन्ही पदों के लिये आयोग महसूस करता था तो उन पदों के लिये चयनित विद्यार्थियों को एक दो माह का अंग्रेज़ी के शिक्षण का विशेष कार्यक्रम चलाया जा सकता था परन्तु उद्देश्य तो कुछ और ही है. फिर एक प्रश्न यह भी है कि अगर अंग्रेज़ी का प्रश्न पत्र अनिवार्य कर रहे हैं तो राष्ट्रभाषा हिन्दी का भी एक प्रश्न पत्र अनिवार्य क्यों नहीं किया? अगर विदेशों से संपर्क के लिये अंग्रेज़ी आयोग की नजरों में ज़रुरी है तो यह भी नहीं भूलना चाहिये कि जिस भारत में नौकरी करना है, जिस भारत के पैसों से बड़ी-बड़ी तनख्वाह और सुविधायें मिलनी है, उस भारत से संपर्क व संवाद के लिये हिन्दी उससे कम ज़रुरी नहीं है.
क्या आयोग के और भारत सरकार के यह गौरांगदास महाप्रभु इस बात का भी उत्तर देंगे कि दुनिया तो छोड़ो यूरोप के कितने देश अंग्रेज़ी के पक्षधर हैं? क्या जर्मनी, फ्रांस में कोई अंग्रेज़ी बोलता है? या यूरोप के इन देशों में अंग्रेज़ी बोलना पसंद भी किया जाता है? सच्चाई तो यह है कि यूरोप के अधिकांश देश अंग्रेज़ी बोलने वालों को नफरत की हद तक नापंसद करते हैं तथा उसे अपनी राष्ट्रीयता के विरूद्ध मानते है. अंग्रेज़ी विश्व भाषा नहीं है वरन् वह विश्व व्यापार संगठन, अंर्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष याने दुनिया के आर्थिक साम्राज्यवाद की भाषा है.
दूसरा इस प्रश्न का उत्तर आयोग व सरकार को देना चाहिये कि अगर ब्रिटेन से संर्पक करने के लिये भारतीय नौजवानों को अंग्रेज़ी का विशिष्ट ज्ञान अपरिहार्य है तो क्या ब्रिटेन के नौजवानों के लिये भारत से संपर्क के लिये हिन्दी का विशिष्ट ज्ञान ज़रुरी नहीं है? तब क्या हिन्दी का प्रश्न पत्र ब्रिटिश प्रशासनिक सेवाओं में अनिवार्य नहीं होना चाहिये?
भाषा का संबंध अगर योग्यता से है तो मात्र यही है कि व्यक्ति अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा में अपनी योग्यता को ज़्यादा ठीक ढंग से व्यक्त व सिद्ध कर सकता है. विदेशी भाषा की कसौटी तो योग्य को अयोग्य व अयोग्य को योग्य बनाने का षड़यंत्र होती है.
राष्ट्रभाषा और भारतीय भाषाओं का इस्तेमाल करने वाले प्रशासनिक अधिकारी अपने देशवासियों की समस्याओं को ज़्यादा बेहतर समझ सकते हैं. तथा उनसे ज़्यादा संवेदनशील होने की अपेक्षा हो सकती है. और प्रशासनिक संवेदनशीलता व सहभागिता के दायरों को ज़्यादा बढ़ा सकते हैं. आज विकास का ढांचा अंग्रेज़ी के ऊंचे पायदानों पर खड़ा होता है और व्यापक अर्थों में राष्ट्र नीचे जमीन पर बिछा रह जाता है. इसीलिये विकास के नाम पर महानगरों के टापू तो बन जाते हैं परन्तु गांव की गलियां उपेक्षित और खाई बनी रह जाती है.
अंग्रेज़ी भारत में साम्राज्यवादी गुलामों के भेदभाव व शोषण की भाषा भी है ओर साथ ही भ्रष्टाचार की भाषा भी. बहुत सारे सामान्य लोग इसलिये शोषित होने को बाध्य हैं कि कानून अंग्रेज़ी में बोलता है. अदालतें अंग्रेज़ी सुनती हैं और न्याय अंग्रेज़ी में होता है. शासन की नीतियां व दफ़्तरों कर पत्रावलियां अंग्रेज़ी में दौड़ती हैं. यह अंग्रेज़ी के भक्त सैकड़ों वर्षों से देश के सामान्य व्यक्तियों के लिये डरावने व लूटने वाले ही लगते हैं. जब तक राष्ट्रभाषा, राज्यभाषा, जनभाषा एक नहीं होती तब तक न तो देश का की योग्यता का सही परीक्षण हो सकता है और न ही सही अर्थो में विकास हो सकता है.
आज़ादी के आंदोलन में महात्मा गांधी ने और आज़ादी के बाद डॉ. राममनोहर लोहिया ने अंग्रेज़ी हटाओ और भारतीय भाषायें लाओ का नारा दिया था. आज़ादी के तत्काल बाद गांधी ने एक संवाददाता को संदेश देते हुए कहा था कि “दुनिया को बता दो, गांधी अंग्रेज़ी भूल गया है.’’ इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा था कि अगर मेरा बस चले तो एक क्षण में अंग्रेज़ी को हटाकर हिन्दी को लागू कर दूं. आज़ादी के बाद डॉ. लोहिया ने अंग्रेज़ी व अंग्रेज़ी मानसिकता को हटाने का जो आंदोलन चलाया था कि उसी का यह परिणाम हुआ कि केन्द्रीय लोकसेवा आयोग में अंग्रेज़ी परीक्षा की अनिर्वायता समाप्त हुई. प्रो.डी.एस. कोठारी को याद करना चाहिये, जिन्होंने अपनी रपट में केन्द्रीय लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंग्रेज़ी को समाप्त करने की सिफारिश की थी.
आज समूचा देश भ्रष्टाचार से पीड़ित और परेशान है और अक्सर अब लोग कहने लगे हैं कि नख से शिख तक याने नीचे से उपर तक भ्रष्टाचार फैल गया है. लोग यह भी कहते हैं कि भ्रष्टाचार का दीमक समूचे राष्ट्रीय जीवन को नष्ट कर रहा है. निःसंदेह इसमें सच्चाई है पर इस सच्चाई के साथ-साथ इसको भी स्वीकारना होगा कि अंग्रेज़ी का भ्रष्टाचार लाखों करोड़ों का है और विदेशी बैंकों में जमा अरबों रुपया काले धन की अर्थव्यवस्था का जनक है. हिन्दी व भारतीय भाषाओं का भ्रष्टाचार पटवारी सिपाही आदि का 100-500 वाला ही है. याने बड़ा भ्रष्टाचार अंग्रेज़ी वाला है. अंग्रेज़ी शैली और अंग्रेज़ी सभ्यता और अंग्रेज़ी के संपर्क आज काले धन की अर्थव्यवस्था की जनक, प्रसारक व संरक्षक और सबसे बड़े उपयोगकर्ता हैं.
क्या यह सत्य नहीं हैं कि अंग्रेज़ी की कोख से जन्मे यह देशी अंग्रेज आधे समय विदेशों में ही रहते हैं. उनके बच्चे विदेशों में पढ़तें हैं तथा अगर लूटने के लिये ज़रुरी ना हो तो ये विदेशों में ही बसना चाहते हैं. यह संबंध केवल भाषा का नहीं वरन् भारत के उपर इंडिया व विदेशी सभ्यता की गुलामी का है. सही अर्थों में यह साम्राज्यवादी मानसिकता से मुक्ति संघर्ष है. हमें केन्द्रीय लोकसेवा आयोग व भारत सरकार को बाध्य करना होगा कि अंग्रेज़ी के अनिवार्य किये गये प्रश्न पत्र को वापिस लें वरना भारत पर इंडिया का राज कायम रहेगा. भारत के बच्चे पटवारी बनेंगे. इंडिया के बच्चे अफसरशाह बनेंगे. भारत के बच्चे उन नीतियों के शिकार होंगे, जो उन्हें ना जिन्दा रहने देगी और न मरने देगी. उनके भीख के कटोरे में राहत के नाम पर कुछ दाने डाल दिये जायेंगे. नीतियों का निर्धारण इंडिया ही करेगा, जो सम्पन्नता के सागर में हिलोरें लेता रहेगा. समता जो अभी दूर का सपना है, शायद सपना भी नहीं रहेगा.
भारतीय प्रशासनिक सेवायें केवल उस इंडिया की प्रतिनिधि प्रवक्ता थी, जिनमें भारत के गांव और गरीब का कोई हिस्सा न था और न ही कोई भूमिका थी. परन्तु पिछले कुछ वर्षों में जब से केन्द्रीय लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं में परीक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी या ऐच्छिक हुआ था तब से भारत की प्रशासनिक सेवाओं में भारत की हिस्सेदारी बढ़ी और देश के गांव गरीब किसानों कर्मचारियों और यहां तक कि चाय बेचने वाले छोटे दुकानदारों के बेटों का चयन भी प्रशासनिक सेवाओं में होने लगा था.
विदेशी भाषा की कसौटी योग्यता के चयन के लिये सही मापदण्ड नहीं हो सकता और इसलिये जब अंग्रेज़ी की बाध्यता समाप्त हो गई तब हिन्दी भाषी ओर भारतीय भाषा के यथा मराठी, गुजराती, तेलगू, मलयाली, कन्न्ड़, उड़िया, पंजाबी बौर उर्दू भाषियों के ग्रामीण किसान और मजदूर परिवार के नवयुवकों को भी बड़े पदों पर जाने का अवसर मिलने लगा. पिछले कुछ वर्षों में देश के गरीबों, किसानों के बच्चों ने यह सिद्ध कर दिया कि अगर अंग्रेज़ी भाषा की कसौटी की बाध्यता न हो तो योग्यता, भारत के राष्ट्रªभाषा और भारतीय भाषाओं के बोलने वाले गांव ओर कस्बों के नौजवानों के पास कहीं ज़्यादा है और इसी को रोकने के लिये भारत सरकार और आयोग में बैठे अंग्रेज़ी के मानसिक गुलामों ने यह षड़यंत्र किया है.
कहने को तो अंग्रेज़ी का अनिवार्य पर्चा केवल 40 अंकों का है परन्तु समूची चयन प्रक्रिया को यह प्रभावित करेगा. यह एक सुविदित तथ्य है कि 2 से 3 प्रतिशत अंको में ही सारे चयनित प्रत्याशी सिमट जाते हैं. प्रतिस्पर्धा इतनी भारी होती है कि दशमलव 1-2 के अंतर में ही अनेकों प्रत्याशी मेरिट लिस्ट में रहते हैं और जब अंग्रेज़ी के प्रश्न पत्र में सीधे 20-20 अंकों का फर्क होगा तब स्वाभाविक है कि राष्ट्रभाषा और असली भारत की योग्यता पीछे कर दी जायेगी.
अगर अंग्रेज़ी के विशेष ज्ञान की आवश्यकता किन्ही पदों के लिये आयोग महसूस करता था तो उन पदों के लिये चयनित विद्यार्थियों को एक दो माह का अंग्रेज़ी के शिक्षण का विशेष कार्यक्रम चलाया जा सकता था परन्तु उद्देश्य तो कुछ और ही है. फिर एक प्रश्न यह भी है कि अगर अंग्रेज़ी का प्रश्न पत्र अनिवार्य कर रहे हैं तो राष्ट्रभाषा हिन्दी का भी एक प्रश्न पत्र अनिवार्य क्यों नहीं किया? अगर विदेशों से संपर्क के लिये अंग्रेज़ी आयोग की नजरों में ज़रुरी है तो यह भी नहीं भूलना चाहिये कि जिस भारत में नौकरी करना है, जिस भारत के पैसों से बड़ी-बड़ी तनख्वाह और सुविधायें मिलनी है, उस भारत से संपर्क व संवाद के लिये हिन्दी उससे कम ज़रुरी नहीं है.
क्या आयोग के और भारत सरकार के यह गौरांगदास महाप्रभु इस बात का भी उत्तर देंगे कि दुनिया तो छोड़ो यूरोप के कितने देश अंग्रेज़ी के पक्षधर हैं? क्या जर्मनी, फ्रांस में कोई अंग्रेज़ी बोलता है? या यूरोप के इन देशों में अंग्रेज़ी बोलना पसंद भी किया जाता है? सच्चाई तो यह है कि यूरोप के अधिकांश देश अंग्रेज़ी बोलने वालों को नफरत की हद तक नापंसद करते हैं तथा उसे अपनी राष्ट्रीयता के विरूद्ध मानते है. अंग्रेज़ी विश्व भाषा नहीं है वरन् वह विश्व व्यापार संगठन, अंर्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष याने दुनिया के आर्थिक साम्राज्यवाद की भाषा है.
दूसरा इस प्रश्न का उत्तर आयोग व सरकार को देना चाहिये कि अगर ब्रिटेन से संर्पक करने के लिये भारतीय नौजवानों को अंग्रेज़ी का विशिष्ट ज्ञान अपरिहार्य है तो क्या ब्रिटेन के नौजवानों के लिये भारत से संपर्क के लिये हिन्दी का विशिष्ट ज्ञान ज़रुरी नहीं है? तब क्या हिन्दी का प्रश्न पत्र ब्रिटिश प्रशासनिक सेवाओं में अनिवार्य नहीं होना चाहिये?
भाषा का संबंध अगर योग्यता से है तो मात्र यही है कि व्यक्ति अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा में अपनी योग्यता को ज़्यादा ठीक ढंग से व्यक्त व सिद्ध कर सकता है. विदेशी भाषा की कसौटी तो योग्य को अयोग्य व अयोग्य को योग्य बनाने का षड़यंत्र होती है.
राष्ट्रभाषा और भारतीय भाषाओं का इस्तेमाल करने वाले प्रशासनिक अधिकारी अपने देशवासियों की समस्याओं को ज़्यादा बेहतर समझ सकते हैं. तथा उनसे ज़्यादा संवेदनशील होने की अपेक्षा हो सकती है. और प्रशासनिक संवेदनशीलता व सहभागिता के दायरों को ज़्यादा बढ़ा सकते हैं. आज विकास का ढांचा अंग्रेज़ी के ऊंचे पायदानों पर खड़ा होता है और व्यापक अर्थों में राष्ट्र नीचे जमीन पर बिछा रह जाता है. इसीलिये विकास के नाम पर महानगरों के टापू तो बन जाते हैं परन्तु गांव की गलियां उपेक्षित और खाई बनी रह जाती है.
अंग्रेज़ी भारत में साम्राज्यवादी गुलामों के भेदभाव व शोषण की भाषा भी है ओर साथ ही भ्रष्टाचार की भाषा भी. बहुत सारे सामान्य लोग इसलिये शोषित होने को बाध्य हैं कि कानून अंग्रेज़ी में बोलता है. अदालतें अंग्रेज़ी सुनती हैं और न्याय अंग्रेज़ी में होता है. शासन की नीतियां व दफ़्तरों कर पत्रावलियां अंग्रेज़ी में दौड़ती हैं. यह अंग्रेज़ी के भक्त सैकड़ों वर्षों से देश के सामान्य व्यक्तियों के लिये डरावने व लूटने वाले ही लगते हैं. जब तक राष्ट्रभाषा, राज्यभाषा, जनभाषा एक नहीं होती तब तक न तो देश का की योग्यता का सही परीक्षण हो सकता है और न ही सही अर्थो में विकास हो सकता है.
आज़ादी के आंदोलन में महात्मा गांधी ने और आज़ादी के बाद डॉ. राममनोहर लोहिया ने अंग्रेज़ी हटाओ और भारतीय भाषायें लाओ का नारा दिया था. आज़ादी के तत्काल बाद गांधी ने एक संवाददाता को संदेश देते हुए कहा था कि “दुनिया को बता दो, गांधी अंग्रेज़ी भूल गया है.’’ इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा था कि अगर मेरा बस चले तो एक क्षण में अंग्रेज़ी को हटाकर हिन्दी को लागू कर दूं. आज़ादी के बाद डॉ. लोहिया ने अंग्रेज़ी व अंग्रेज़ी मानसिकता को हटाने का जो आंदोलन चलाया था कि उसी का यह परिणाम हुआ कि केन्द्रीय लोकसेवा आयोग में अंग्रेज़ी परीक्षा की अनिर्वायता समाप्त हुई. प्रो.डी.एस. कोठारी को याद करना चाहिये, जिन्होंने अपनी रपट में केन्द्रीय लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंग्रेज़ी को समाप्त करने की सिफारिश की थी.
आज समूचा देश भ्रष्टाचार से पीड़ित और परेशान है और अक्सर अब लोग कहने लगे हैं कि नख से शिख तक याने नीचे से उपर तक भ्रष्टाचार फैल गया है. लोग यह भी कहते हैं कि भ्रष्टाचार का दीमक समूचे राष्ट्रीय जीवन को नष्ट कर रहा है. निःसंदेह इसमें सच्चाई है पर इस सच्चाई के साथ-साथ इसको भी स्वीकारना होगा कि अंग्रेज़ी का भ्रष्टाचार लाखों करोड़ों का है और विदेशी बैंकों में जमा अरबों रुपया काले धन की अर्थव्यवस्था का जनक है. हिन्दी व भारतीय भाषाओं का भ्रष्टाचार पटवारी सिपाही आदि का 100-500 वाला ही है. याने बड़ा भ्रष्टाचार अंग्रेज़ी वाला है. अंग्रेज़ी शैली और अंग्रेज़ी सभ्यता और अंग्रेज़ी के संपर्क आज काले धन की अर्थव्यवस्था की जनक, प्रसारक व संरक्षक और सबसे बड़े उपयोगकर्ता हैं.
क्या यह सत्य नहीं हैं कि अंग्रेज़ी की कोख से जन्मे यह देशी अंग्रेज आधे समय विदेशों में ही रहते हैं. उनके बच्चे विदेशों में पढ़तें हैं तथा अगर लूटने के लिये ज़रुरी ना हो तो ये विदेशों में ही बसना चाहते हैं. यह संबंध केवल भाषा का नहीं वरन् भारत के उपर इंडिया व विदेशी सभ्यता की गुलामी का है. सही अर्थों में यह साम्राज्यवादी मानसिकता से मुक्ति संघर्ष है. हमें केन्द्रीय लोकसेवा आयोग व भारत सरकार को बाध्य करना होगा कि अंग्रेज़ी के अनिवार्य किये गये प्रश्न पत्र को वापिस लें वरना भारत पर इंडिया का राज कायम रहेगा. भारत के बच्चे पटवारी बनेंगे. इंडिया के बच्चे अफसरशाह बनेंगे. भारत के बच्चे उन नीतियों के शिकार होंगे, जो उन्हें ना जिन्दा रहने देगी और न मरने देगी. उनके भीख के कटोरे में राहत के नाम पर कुछ दाने डाल दिये जायेंगे. नीतियों का निर्धारण इंडिया ही करेगा, जो सम्पन्नता के सागर में हिलोरें लेता रहेगा. समता जो अभी दूर का सपना है, शायद सपना भी नहीं रहेगा.
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