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09 जुलाई 2011

40 फीसद किसान खेती छोड़ अन्य रोजगार चाहते हैं

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कहता है कि देश के 40 फीसद किसान खेती छोड़कर अन्य वैकल्पिक रोजगार पाना चाहते हैं। महँगे कृषि उपकरण, खाद, बीज, सिंचाई की व्यवस्था का भार कृषकों के लिए असहनीय हो गया है। ऐसे में कृषक अपने व्यवसाय के प्रति उदासीन हो रहे हैं। कहने को तो अब भी देश की आधे से अधिक ग्रामीण जनसंख्या कृषि पर ही केंद्रित है। किसानों का जीविकोपार्जन का अस्तित्व अब खतरे में है।

किसानों के ऊपर अब अतिरिक्त वित्तीय बोझ है। 1997 से 2009 के बीच 216500 किसानों ने स्थिति से तंग आकर आत्महत्या कर ली। फसलों के उचित भंडारण के लिए संसाधनों का अभाव कृषकों की समस्या बढ़ाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर के खेल का आयोजन जब हम करा सकते हैं तो उस स्तर के भंडारण गृहों का निर्माण क्यों नहीं करा सकते। किसानों के समक्ष एक और प्रमुख समस्या है फसल के लिए उपयुक्त बाजार का न होना।

सरकार फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करती है परंतु उन्हें इस मूल्य पर खरीदने के लिए एकमात्र भारतीय खाद्य निगम ही है। ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य निगम की पहुंच अतिसीमित है।

जहां पर एफसीआई के क्रय केंद्र हैं, वहां भी भ्रष्टाचार के कारण योजना फलीभूत नहीं हो पाती। आमतौर पर किसानों को निर्धारित मूल्य देकर उपज खरीदने का वादा तो किया जाता है परंतु एवज में उन्हें उचित मूल्य नहीं दिया जाता है या फिर परेशान किया जाता है। इससे कृषक गांवों में ही कम मूल्य पर सुविधाजनक तरीके से उपज बेचने पर बाध्य हो जाते हैं। यह अन्याय और किसानों का शोषण है। आज खाद्य सुरक्षा को लेकर भयावह तस्वीर पेश की जा रही है। खाद्यान्ना उत्पादकों के प्रति हमारी नीतियां संतोषजनक नहीं हैं।

किसानों के लिए कई सरकारी योजनाएँ हैं जिससे किसानों को राहत मिली भी है पर उनके सामने उनकी वित्त व्यवस्था की समस्या विकट चुनौती के रूप में है। इसका हल वित्तीय समावेशन के अंतर्गत हो सकता है। 2008 में वित्तीय समावेशन के लिए गठित समिति के अध्यक्ष डॉ. रंगराजन ने वित्तीय समावेशन को परिभाषित करते हुए कहा था कम आय वाले व कमजोर वर्ग के लिए ऋण और वित्तीय सेवाओं तक उनकी समस्या सुगमतापूर्वक पहुंचना ही वित्तीय समावेशन है।

यह वास्तविकता है कि किसान ऊंची ब्याज दरों पर साहूकारों से ऋण प्राप्त करते हैं जिनसे उनको सहूलियत कम होती है जबकि उन्हें इसके लिए शोषण के एक जटिल फंदे में फंस जाना होता है। इसके विकल्प के रूप में सरकार ने किसानों को अल्पकालीन सुविधापूर्ण ऋण प्रदान करने के लिए 1998 में किसान क्रेडिट योजना शुभारंभ की। मगर ये योजना भी विफल ही साबित हुई। इन सारी योजनाओं के बावजूद किसानों की आत्महत्या में बढ़ोतरी हो रही है।

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