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30 मई 2011

.........osho

तुम अकेले में बेचैन होते हो। कहते हो क्या करें, कहां जाए, किसको मिले? मित्र खोजते हो, क्लब जाते हो, होटल में बैठते हो, सिनेमा देख आते हो, मंदिर पहुंच जाते हो, लेकिन तुम्हारी खोज दूसरे की खोज है। कोई दूसरा मिल जाए तो थोड़ा अपने से छुटकारा हो, नहीं तो अपने से घबड़ाहट होने लगती हैं। अपनी ही अपने से ऊब पैदा हो जाती है। तुम अपने को झेल नहीं पाते। तुम अपने से परेशान हो जाते हो। तो पत्नी को खोजते हो, पति को खोजते हो, बच्चे पैदा करते हो--भीड़ बढ़ाते जाते हो, इसमें उलझे रहते हो।
अब मेरे पास लोग आते हैं। अगर वे अकेले हैं, तो दुखी। वे कहते हैं, हम अकेले हैं। अगर परिवार में हैं, तो दुखी हैं। वे कहते हैं, परिवार है। अकेले हैं तो अकेलापन काटता है। अकेलेपन से बचन के लिए भीड़ इकट्ठी कर लेते हैं, तो भीड़ सताती है। फिर वे कहते हैं दबे जा रहे हैं, व्यर्थ मरे जा रहे हैं, बोझ ढो रहे हैं, कोल्हू के बैल बन गयी हैं। पत्नी है, बच्चे हैं, अब इनको पालना है, शिक्षा दिलानी है, शादी करनी है, अब तो फंस गए! जब तक फंसे नहीं थे तब तक लगता था, क्या करें अपने-आप? अपने साथ क्या करें? कुछ सूझता न था। अकेले-अकेले ऊब मालूम पड़ती थी कुछ चाहिए करने का।
साध असंगी संग तजै। साधु तो वही है जो असंग को साधता है, अकेलेपन को साधता है। जो कहता है कि मैं अपने अकेले मैं आनंदित रहूंगा। जो धीरे-धीरे अपने निजरूप में उतरता है। जो अपने ही भीतर गहरा कुआं खोदता है, और उसमें डूबता है। एक ऐसी घड़ी आती है जब अपने ही केंद्र पर कोई पहुंच जाता है, तो फिर किसी के साथ की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
इसका यह मतलब नहीं कि तुम जंगल भाग जाओ। जंगल भी वही भागता है जो पहले अपन से भागने के लिए भीड़ में फंसा। अब भीड़ से बचने के लिए जंगल भागता है। जंगल में फिर अकेला हो जाएगा, फिर भागेगा।
                   .........osho

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